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जीवनी/आत्मकथा >> युग पुरुष नेहरू

युग पुरुष नेहरू

प्रकाश नगायच

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3692
आईएसबीएन :81-288-0069-x

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नेहरू के जीवन पर आधारित पुस्तक...

Yug purush Nehru

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


युग पुरुष नेहरू उन जन नायकों में थे जिन्होंने आधुनिक भारत का सपना ही नहीं देखा अपितु इसे क्रियान्वित भी किया। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री होते हुए भी अपने आपको देश का प्रथम देश सेवक कहलाना पसंद किया।

शांति के अग्रदूत पं.जवाहर लाल नेहरू का जन्म भले ही एक धनाढ्य परिवार में हुआ लेकिन उनका पूरा जीवन संघर्ष में बीता। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वह कई बार जेल गये। ‘‘आराम हराम है’’ का नारा देने वाले नेहरू आजीवन परीश्रम करते रहे और राष्ट्र को वैज्ञानिक ढंग से विकास के मार्ग पर आगे बढ़ाते रहे। उन्हीं के शब्दों में नये कल कारखाने भारत के नये मंदिर हैं।

भारत में जो आज लोकतांत्रिक व्यवस्था है उसका श्रेय भी पं. जवाहरलाल नेहरू को ही जाता है। पंडित जी विचारक चिंतक और भविष्य दृष्टा के रूप में विख्यात हैं। प्रस्तुत पुस्तक में पंडित जी के जीवन वृत्त को बहुत ही सरल और सुबोध भाषा में प्रस्तुत किया गया है।

प. जवाहर लाल नेहरू को राष्ट्र निर्माता के रूप में सदा ही याद किया जाता रहेगा। कालांतर में भारत की जो तस्वीर उभरी उसकी परिकल्पना पंडितजी ने सन् 1933 से ही करनी शुरू कर दी थी और स्वाधीन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में वे जीवन-पर्यन्त राष्ट्र को वैज्ञानिक विकास के मार्ग पर आगे बढ़ाते रहे।

नेहरू जी ऐसे खुशहाल भारत का सपना देखते थे, जहां सबको सब कुछ प्राप्त हो। इसलिए उन्होंने समाजवादी समाज की स्थापना का व्रत लिया।
भारत में जो आज लोकतांत्रिक व्यवस्था है उसका श्रेय भी पं. जवाहरलाल नेहरू को ही जाता है। पंडित जी विचारक चिंतक और भविष्य दृष्टा के रूप में विख्यात हैं। प्रस्तुत पुस्तक में पंडित जी के जीवन वृत्त को बहुत ही सरल और सुबोध भाषा में प्रस्तुत किया गया है।

भूमिका


पंडित जवाहर लाल नेहरू की जीवनी का प्रकाशन एक स्वाभाविक कार्य है, जो कुछ मुश्किल भी है क्योंकि यह साधारण जीवनी मात्र नहीं, देश का इतिहास बन जाता है। पंडित जी के जीवन वृत्त को देश के इतिहास से अलग करना संभव नहीं है। वे उन चंद व्यक्तियों में से हैं, जिनकी 20वीं सदी के इतिहास में भारत के जन-नायक के रूप में एशिया के नये तेवर के प्रतिनिधि के रूप में और अंतर्राष्ट्रीय सामुदायिक सजगता के प्रवक्ता के रूप में एक अहम और निर्णायक भूमिका रही है।

 पंडितजी का उदय राजनीतिक क्षितिज में 20वीं सदी के दूसरे दशक के उत्तरार्द्ध में हुआ और शीघ्र ही कुछ वर्षों में वे गांधी जी के नेतृत्व में चल रहे स्वाधीनता आंदोलन के अग्रणी नेताओं में से एक हो गए। सन् 1920-21 से लेकर 1947 तक की हर राष्ट्रीय घटना से पंडित जी किसी न किसी रूप से जुड़े रहे।

यह दौर भारत की क्या सम्पूर्ण विश्व में ही उथल-पुथल का रहा। अंतराष्ट्रीय घटनाओं और प्रवृत्तियों को बदलते समय की मांग के अनुसार पहचान कर उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल करने में जवाहर लाल जी का विशेष योगदान रहा है।
दूसरे विश्न-युद्ध के बाद से दुनिया दो महाशक्तियों के प्रभाव क्षेत्रों में बंट गई। नेहरू जी ने इस खतरे को समझा और पंचशील सिद्धांतों पर आधारित गुट-निरपेक्षता के आंदोलन को दुनिया के मंच पर तीसरी शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया। इस नये राजनीतिक दर्शन का महत्त्व अपनी प्रभुसत्ता की रक्षा के लिए संघर्ष करते छोटे से छोटे देश और दुनिया के बड़े-बड़े ने भी माना है।

नेहरू जी को विश्व शांति का दूत कहा जाने लगा।

भारत में आज जो लोकतांत्रिक व्यवस्था है उसका भी श्रेय पंडित जवाहर लाल नेहरू जी को ही जाता है। पंडित जी चिंतक, विचारक और भविष्य-द्रष्टा नायक के रूप में बेमिसाल हैं। प्रस्तुत पुस्तक में पंडित जी के जीवन वृत्त को क्रमागत रूप में प्रस्तुत किया गया है। डायमंड पॉकेट बुक्स के श्री नरेन्द्र कुमार जी पिछले कुछ वर्षों से गंभीर विषयों के प्रकाशनों को भी अपने उद्यम में शामिल कर रहे हैं वह भी इतने कम मूल्य पर। यह एक अच्छी शुरुआत है। इस सद्प्रयास का स्वागत है।

27, नार्थ एवेन्यु
नई दिल्ली-110001

(नरेशचन्द्र चतुर्वेदी)
संसद सदस्य

वंश परिचय


अठारहवीं शताब्दी एक-एक कदम दृढ़ता के साथ रखती हुई बढ़ी चली जा रही थी और उसी के साथ अफगानिस्तान से अराफान और कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले विस्तृत विशाल मुगल साम्राज्य के कदम तेजी से पतन की ओर बढ़ने लगे थे। मुगल साम्राज्य के पतन का का आरंभ शहंशाह औरंगजेब के जीवन काल में ही आरम्भ हो गया था। व्यापारियों के रूप में अंग्रेजों ने सूरत और भड़ौच जैसे व्यापारिक जल पत्तनों पर अपने पांव पसारने आरंभ कर दिए थे।


उन दिनों दिल्ली के तख्त पर शहंशाह फरूखसियर आसीन था। कश्मीर-यात्रा में उसकी भेंट अरबी, फारसी, संस्कृत और कश्मीरी भाषा के विद्वान पंडित राज कौल से हुई। वह पंडित राज कौल की विद्वता और प्रतिभा से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उनसे आग्रह किया कि वह श्री नगर छोड़कर दिल्ली आ जाएं और उसके दरबार की शोभा बढ़ाएं।

शहंशाह फरूखसियर ने पंडित राज कौल को दरबार में सम्मानित पद ही नहीं दिया जागीरें भी दी और हरियाणा में यमुना से निकाली गई नहर जो लाल किले के शाही हमामी तक आती थी, उस नहर के किनारे बनी हुई एक हवेली भी दी। नहर के किनारे बनी इस हवेली में रहने के कारण दिल्ली निवासी पंडित राज कौल को नेहरू के नाम से पुकारने लगे।

 कालान्तर में कौल शब्द गायब हो गया और केवल नेहरू ही रह गया और पंडित राज कौल का परिवार नेहरू परिवार के नाम से जाना जाने लगा। यह घटना अठारहवीं सदी के दूसरे दशक की घटना है।

प्रथम भारतीय स्वाधीनता संग्राम के आरम्भ होने से कुछ वर्ष पहले तक नेहरू परिवार के सदस्य मुगल दरबार में सम्मानित पदों पर काम करते थे। लेकिन सन् 1857 की क्रान्ति से कुछ वर्ष पहले ही पंडित गंगाधर नेहरू को दिल्ली के कोतवाल के पद से हटाकर लार्ड मेटकाफ ने अपना मनपसन्द कोतवाल नियुक्त कर दिया।

जब दिल्ली पर अंग्रेजों और उनके पक्षपाती पंजाब के जींद, पटियाला और कपूरथला आदि राज्यों को सेनाओं ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया तो पंडित गंगाधर नेहरू अपने परिवार को किसी प्रकार अंग्रेजी सेना के खूनी पंजों से बचाकर आगरा पहुंच जाने में सफल हो गए।

सआदत खां की बनाई हुई नहर के किनारे बनी नेहरू परिवार की हवेली को अंग्रेजी सैनिकों ने जी भरकर लूटा और सब कुछ लूटने के बाद असंख्य ग्रन्थों के परिवार से संबंधित तमाम कागज-पत्र और दस्तावेज नष्ट कर दिए। पूरी दिल्ली में लूटपाट और कत्ले आम का बाज़ार गर्म था।

दिल्ली निवासी अपने पुश्तैनी मकानों, जमीन, जायदाद और धन-सम्पत्ति का मोह त्याग कर अपने प्राण बचाने के लिए दिल्ली छोड़कर भागने लगे थे। उन्हीं लुटे-पिटे और आतंकित लोगों के काफिले के साथ पंडित गंगाधर नेहरू भी अपना सब कुछ छोड़कर अपने परिवार को लेकर किसी तरह सुरक्षित रूप से आगरा पहुंच गए।

लेकिन वह आगरा में अपने परिवार को स्थायी रूप से जमा नहीं पाए थे कि सन् 1861 में केवल चौंतीस वर्ष की छोटी-सी आयु में ही वह अपने परिवार को लगभग निराश्रित छोड़कर इस संसार से कूच कर गए।
पंडित गंगाधर नेहरू की मृत्यु के तीन महीने बाद 6 मई 1861 को पंडित मोतीलाल नेहरू का जन्म हुआ था।

पंडित गंगाधर नेहरू के तीन पुत्र थे। सबसे बड़े थे पंडित बंसीधर नेहरू जो भारत में विक्टोरिया का शासन स्थापित हो जाने के बाद तत्कालीन न्याय विभाग में नौकर हो गए। उनसे छोटे पंडित नंदलाल नेहरू थे जो लगभग दस वर्ष तक राजस्थान की एक छोटी-सी रियासत खेतड़ी के दीवान रहे। बाद में वह आगरा लौट गए। उन्होंने आगरा में रहकर कानून की शिक्षा प्राप्त की और फिर वहीं वकालत करने लगे। इन दो पुत्रों के अतिरिक्त तीसरे पुत्र थे पंडित मोतीलाल नेहरू।
पंडित नन्दलाल नेहरू ने ही अपने छोटे भाई मोतीलाल का पालन-पोषण किया, पढ़ाया-लिखाया।

पंडित नन्दलाल नेहरू की गणना आगरा के सफल वकीलों में की जाती थी। उन्हें मुकदमों के सिलसिले में अपना अधिकांश समय इलाहाबाद में हाईकोर्ट बन जाने के कारण वहीं बिताना पड़ता था। इसलिए उन्होंने इलाहाबाद में ही एक मकान बनवा लिया और अपने परिवार को लेकर स्थायी रूप से इलाहाबाद आ गए और वहीं रहने लगे।

पंडित मोतीलाल नेहरू पढ़ने-लिखने में तो अधिक ध्यान नहीं देते थे लेकिन अपने स्कूल और कॉलेज में अपनी हंसी-मज़ाक, खेल-कूद और धींगा-मुश्ती के लिए विख्यात थे। आरम्भ में उन्होंने अरबी और फारसी की शिक्षा प्राप्त की थी।

पंडित मोतीलील नेहरू ने अपनी पढ़ाई-लिखाई की ओर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया। जब बी.ए. की परीक्षा का समय आया तो उन्होंने परीक्षा की तैयारी बिलकुल ही नहीं की थी। उन्होंने पहला ही पेपर किया था तो लगा कि इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने की कोई आशा नहीं है

क्योंकि उस पेपर से उन्हें सन्तोष नहीं हुआ है और सोचकर उन्होंने बाकी पेपर नहीं दिए और ताजमहल की सैर करने चले गए। लेकिन वह पेपर ठीक ही हुआ था। इसलिए प्रोफेसर ने उन्हें बुलाकर बहुत डांटा। लेकिन अब क्या हो सकता था। इसका परिणाम यह हुआ कि मोतीलाल नेहरू की शिक्षा यहीं समाप्त हो गई। वह बी.ए.पास नहीं कर पाए।

अपने कॉलेज जीवन में ही मोतीलाल नेहरू पश्चिमी सभ्यता से इतने प्रभावित हो गए थे कि उन्होंने अपने आपको पूरी तरह उसी ढंचे में ढाल लिया था। उस जमाने में कलकत्ता और बम्बई जैसे बड़े-बड़े नगरों मे ही लोगों ने पाश्चात्य वेश-भूषा, रहन-सहन और सभ्यता को अपनाया था लेकिन मोतीलील नेहरू ने इलाहाबाद जैसे छोटे-से शहर में पाश्चात्य वेश-भूषा और सभ्यता को अपनाकर एक नई क्रान्ति को जन्म दिया। भारत में जब पहली बाइसिकल आई तो मोतीलाल नेहरू ही इलाहाबाद के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बाइसिकल खरीदी।

मोतीलाल नेहरू की पढ़ाई भले ही अधूरी रह गई थी लेकिन वे आरम्भ से ही अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि थे। ज्ञान और विद्वता की उनमें कमी नहीं थी। उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट की वकालत की परीक्षा दी तो सब लोग चकित रह गए। उन्होंने इस परीक्षा में प्रथम स्थान ही प्राप्त नहीं किया था, बल्कि उन्हें एक स्वर्णपदक भी मिला था।

उनकी रुचि आरम्भ से ही वकालत में थी। उन पर अपने बड़े भाई नंदलाल नेहरू का गहरा प्रभाव पड़ा था। नंनलाल नेहरू की गणना कानपुर के अच्छे वकीलों में की जाती थी। इसलिए मोतीलाल नेहरू ने अपनी वकालत उनकी सहायता के रूप में ही आरम्भ की।

पंडित मोतीलील नेहरू ने वकालत के पेशे में सफलता प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय कर लिया था। इसलिए उन्होंने जी-तोड़ परिश्रम किया और बहुत जल्द उनकी गिनती कानपुर के तेज़-तर्रार वकीलों में होने लगी। उन्होंने तीन वर्ष तक कानपुर की जिला अदालतों में वकालत की और फिर इलाहाबाद आकर हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करने लगे।

      
      





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